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पर्दा

Artist

Shreya Verma

कुछ समानताएं है इस खिड़की और अतंरमन में
समानताएं समेटने की, सहेजने की
सि कोड़ने की
और है समेटे, सिकोड़े, सहेजे खिड़की पर उन्माद से लहलहाता ये पर्दा
और इस पर्दे की भाँति हैं मन की खिड़की पर बिछीं पलकें
विचलित मन की सतह पर उन्माद से फड़फड़ाती ये पलकें

ये पर्दा सोखता है हर वसन्त की चहलकदमी
और सरसराता है जब पसू की रात में ठिठुरती है हर एक सिलाई
ढाई बजे की लहू का अभिषके होता है कॉटन की ठंडी फूँक से
और अधंड़ उड़े तब बाँहें फैला के छूता है हर बार नई दूरी
वर्षा धार-धार चोटिल करती है हर सिलवट
और किवाड़ से चिपक के सिसकता है जैसे कोई बच्चा लौटा हो घटुने छिल कर
फिर भी हर रोज़ पुकारता है घर वाले को
हवाओं का सहारा ले कर मीठी खटखटाहट तले कहानियाँ सुनाता है
आश्वाशन देता है
खिड़की खोलने के बहाने देता है
कहता है कि भीगे, सूखे, बाँधे, उजड़े हर एक स्तिथि में जीवित है वो
मसकते धागे मन मसोसते हैं हर रोज़ की ये खिड़की नहीं खलुती
खिड़की और अतंरमन की भाँति पर्दे और पलकों में भी समानताएं हैं

पलकें भी देखती हैं वसतं के फूल
और अचंभित होती हैं जब पूस की रात में साँस से निकलते हैं छोटे बादल
अधंड़ में पीछा करती हैं उस प्लास्टिक के गुब्बारे को जो हवाई करतब दिखा रहा था आकाश में
और वर्षा की बूँदें ऐसे झुका देती है जैसे कोई बच्चा टहनी पकड़ लटक गया हो
पलकें भी मन को सबक देती हैं, सपना देती हैं एक सुन्दर दृश्य का
और मिचती आँखों को इंतज़ार होता है कि कोई भीतर से खिड़की खोले

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